स्थानीय आरक्षण जैसे मुद्दे पर स्थानीय कोंग्रेसी नेताओं की उदासीनता का युवाओं ने लिया बदला के

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सरगुज़ा से इन वजहों से हुआ काँग्रेस का सूपड़ा साफ़-उपेन्द्र गुप्ता(युवा पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक)

अम्बिकापुर/वर्तमान संदेश न्यूज/छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 2023 में काँग्रेस को मिली करारी शिकस्त के बाद हार के कारणों की विवेचना जारी है। तमाम लोग इतनी बड़ी उलटफेर के अलग-अलग कारण बता रहे हैं। सरगुज़ा संभाग की सभी 14 सीटें, जो पिछले चुनाव में काँग्रेस नें जीती थीं, इस बार बीजेपी ने झटक ली हैं। यही नहीं सीतापुर से अमरजीत भगत और अम्बिकापुर में डिप्टी सीएम सिंहदेव के रूप में दिग्गज नेताओं को भी हार का सामना करना पड़ा है। यह दोनों सीटें काँग्रेस के गढ़ के रूप में भी जानी जाती रही हैं। सीतापुर में तो 1952 के पहले विधानसभा चुनाव के बाद से इस चुनाव तक भाजपा नें जीत का स्वाद भी नहीं चखा था। इसी सीतापुर सीट में 4 बार के विधायक और खाद्य मंत्री अमरजीत भगत को राजनीत के सबसे नए खिलाड़ी, पूर्व सैनिक रामकुमार टोप्पो नें पटकनी दे दी है। सरगुजा में ऐसे अप्रत्याशित परिणाम की उम्मीद ना तो कॉंग्रेस को थी ना ही राजनीतिक विश्लेषको नें भी ऐसे किसी परिणाम की आशंका जताई थी। कांग्रेस की इस बड़ी हार की विवेचना करने पर पाएंगे कि पूरे प्रदेश में चुनाव के मुद्दे और सरगुज़ा के चुनावी मुद्दों में अनेक अंतर रहे हैं।
विधानसभा चुनाव 2018 में सरगुज़ा संभाग में टीएस सिंहदेव को सीएम फेस के रूप में प्रोजेक्ट किया गया था। सरगुज़ा संभाग की जनता उन्हे आज भी सरगुज़ा महाराज के रूप में देखती है, यही वजह रही कि सरगुज़ा की सभी 14 विधानसभा सीटों के मतदाताओं ने काँग्रेस के पक्ष में मत दिया और सभी कांग्रेसी कैंडिडेट इन 14 सीटों में जीत गये। सिंहदेव को मुख्यमंत्री की कुर्सी तो नहीं मिली लेकिन कांग्रेस के भीतर ही दो धड़ा जरूर हो गया। एक वर्ग सिंहदेव के समर्थन में रहा, वहीं दूसरा धड़ा भूपेश बघेल की पैरवी करता रहा। सिंहदेव और बघेल के बीच की वर्चस्व की लड़ाई नें पूरे सूबे की राजनीति को उलझाए रखा और धीरे-धीरे यह काँग्रेस के प्रति जनता की नाराजगी की एक बड़ी वजह बनती चली गई। टीएस सिंहदेव के पास किसी काम की लिये जाने वाले लोगों को यह बात जरूर सुनने को मिलती कि सरकार में उनकी चलती नहीं, इसलिए वह कोई काम नहीं करा सकते। यही वजह रही कि सिंहदेव के लिए समर्पित कार्यकर्ता भी इस चुनाव में उनसे दूरी बनाए दिखाई दिए।
काँग्रेस की सरगुज़ा और बस्तर में हार की बड़ी वजह तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग की शासकीय सेवाओं की भर्ती में स्थानीय युवाओं के लिए लागू आरक्षण का खत्म होना और उसे पुनः लागू करवाने की दिशा में कदम न उठाना भी रही। सरगुज़ा और बस्तर के शिक्षित युवाओं ने काँग्रेस की नाकामी का बदला लिया और सरकार बदलने की ठान ली। जिसका नतीजा रहा कि सरगुज़ा की सभी 14 और बस्तर की 12 में से 8 सीटें भाजपा की झोली में यहां की जनता नें डाल दी।

आदिवासी बाहुल्य इन दोनों संभागों में धर्मांतरण भी सत्ता परिवर्तन की एक बड़ी वजह रही।

बीजेपी ने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया और जनता नें भाजपा पर भरोसा भी जता दिया। बीजेपी की केंडिडेट चयन की रणनीति भी इन दोनों संभागों में कारगर साबित हुई। बड़ी संख्या में नए चेहरों को इंट्रोड्यूस किया गया। जनता भी बार बार एक ही चेहरे को देखते बोर हो चुकी थी और नए विकल्प तलाश रही थी। जनता नें नए चेहरों पर भरोसा जताया और जमकर वोट भी किया। कांग्रेस को जहां हार के कारणों की विवेचना कर आगामी पांच साल की कार्ययोजना तैयार करनी है वहीं भाजपा को भी उन फ़ैक्टर्स पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है जो पार्टी को इतने बड़े बहुमत से सरकार बनाने में मददगार साबित हुए हैं। सूबे में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग उठ रही है। प्रदेश की जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी लगभग 33 प्रतिशत है ऐसे में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। सिर्फ इतना ही नहीं चूँकि सरगुजा संभाग नें सभी सीटें भाजपा को देकर भाजपा पर भरोसा जताया है, इसलिए यह भी जरूरी हो जाता है कि सरगुजा से ही किसी नेता को मुख्यमंत्री का ताज पहनाया जाए। सरगुजा संभाग से सीएम के विकल्प की बात करें तो केंद्रीय मंत्री रेणुका सिंह, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय और सांसद गोमती साय बेहतर विकल्प हो सकते हैं। यह सभी जनजाति समाज से आते हैं और राजनीति का लंबा अनुभव इन तीनों ही नेताओं के पास है।
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